क्या मेरे दूध पीने से गाय की हत्या होती है?
जी, बिलकुल। हमारे द्वारा गाय के दूध का सेवन ही उसकी हत्या का कारण है। आओ इसे थोड़ा गहराई से समझें।
गाय को माता का दर्जा कितना उचित?
हिन्दू संस्कृति एवं विशेषकर भारत में गाय को एक माता का दर्जा दिया गया है और उसे गौ-माता के उद्बोधन से संबोधित किया जाता है। सभी जीवों में गाय को पवित्रतम माना गया है। उसके दूध को तो अमृत की उपाधि दी गई है। न केवल दूध बल्कि उसका अंग-प्रत्यंग व सम्पूर्ण अस्तित्व मानव के लिए लाभकारी बताया गया जिसमें गोबर व गौमूत्र भी शामिल हैं।अतः गौ को देवी-तुल्य कहते हुए उसे भारत-भर में अति-श्रद्धा के साथ पूजा जाता है ..या यों कहे कि ऐसा जताने का प्रयास किया जाता है। सभी से अपने घरों में कम से कम एक गाय अवश्य ही पालने को कहा जाता है। गाय पाल कर उसकी भली-भांति देखभाल करने को “गौ-सेवा” कहा जाता है। ये गौ-पालक गाय और पूरे गौ-वंश की हत्या के सख्त खिलाफ होते हैं। बल्कि कई नौजवान और युवा अपना समूह बनाकर रात-दिन सभी मुख्य मार्गों पर चलने वाले ट्रकों पर निगरानी रखते हैं कि कहीं ये उनमें गौवंश को छुपा कत्लखाने तो नहीं ले जा रहे। ऐसी किसी भी सूचना पर ये उन गौ-तस्करों का पीछा कर उनसे गौ-वंश को मुक्त कराते हैं। इन्हें “गौ-रक्षक” कहा जाता है। ऐसा भी एक बहुत बड़ा वर्ग है जो गौ को भारत का राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग कर रहा है।
किन्तु क्या दूध हेतु गौ-पालन गौ-वंश के भी हित में है?
चाहे हमारी पारंपरिक प्रथाएँ या शास्त्रीय स्रोत कुछ ओर कहते हो लेकिन इस कटु सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि गौ-दुग्ध के लिए गौ-पालन उसके कत्ल का मूल कारण है। दूध पीने वाले ‘तथा-कथित’ शाकाहारी लोगों को ऐसा अवश्य प्रतीत होता होगा की दूध बिलकुल ही अहिंसक उत्पाद है और इसे माँसाहार की श्रेणी में सम्मिलित नहीं किया जा सकता क्योंकि दूध दुहने के कारण प्रत्यक्षतः गाय मरती हुई दिखाई नहीं देती। परंतु यह भी तथ्य है कि हम गाय से दूध हासिल करने से होने वाले अप्रत्यक्ष परंतु घोर हिंसक परिणामों को सरासर नजर-अंदाज़ कर देते हैं। आज यह कोई राज की बात नहीं रह गई है कि दुग्ध-उद्योग एवं बूचडखाने परस्पर निर्भर हैं। एक के बगैर दूसरे का अस्तित्व नहीं हो सकता। यद्यपि हिंदुस्तान का शाकाहारी वर्ग मांस-उद्योग एवं कत्लखानों के विरोध में निरंतर आवाज उठाता रहता है तथापि वे अपने दुग्ध-उत्पादों के उपभोग से परहेज करने में कतराते हैं। इस कारण देश कि सरकार भी पशोमपेश में है क्योंकि बिना डेयरी उद्योग पर प्रतिबंध लगाये कत्लखानों पर प्रतिबंध लगाना असंभव है। जब डेयरी के लिए बड़ी संख्या में गौ-वंश का उत्पादन लाजमी है तो उनका कत्ल भी उतना ही आवश्यक हो जाता है। लेकिन जनता के लगातार दबाव के कारण अनेक राज्य-सरकारों ने गौ-वंश के कत्ल पर किसी न किसी रूप में प्रतिबंध लगा दिया है। हालांकि इस कदम से दूसरी अनेक प्रकार कि गंभीर समस्याएँ जन्मी है, जैसे कि सड़कों पर आवारा गायों की बढ़ती संख्या, इनके कारण बढ़ती सड़क दुर्घटनाएं, एक राज्य से दूसरे राज्यों में गौ-रक्षकों की नज़रें बचाते हुए अमानवीय रूप से की जा रही गायों की तस्करी, गौ-मांस खाने वालों के प्रति असहिष्णुता और अनियंत्रित कट्टरवादियों की भीड़ द्वारा निर्दोषों को निर्ममता से पीट-पीट कर जान से मारने की घटनाएँ आदि।
लेकिन डेयरी उद्योग में क्या क्रूरता है?
आज अधिकांश लोग डेयरी उद्योग की क्रूर प्रक्रियाओं से वाकिफ़ हैं। इनमें प्रमुख हैं:
- गाय का प्रतिवर्ष संतानोत्पत्ति के लिए कृत्रिम गर्भाधान (जिसे पशु-अधिकारों के लिए आंदोलनरत वर्ग द्वारा “बलात्कार” की संज्ञा भी दी जाती है),
- गौ-“माता” को हर साल प्रसव के लिए बाध्य करना (जी हाँ, बिना प्रसव एवं संतानोत्पत्ति के दुनिया में कोई भी स्तनपाई जानवर दूध उत्पादन नहीं कर सकता ....क्योंकि माँ को दूध हमेशा उसके अपने बच्चे के लिए ही पैदा होता है,
- जब एक गाय शुष्क हो जाती है अथवा उसका दूध उत्पादन कम होने लगता है यानि की मात्र 5 से 8 वर्ष की लघु आयु में, तो उसे कत्लखाने भेज दिया जाता है (एक गाय की औसत प्राकृतिक आयु 20-25 वर्ष होती है),
- एक माँ और बछड़े का मर्मस्पर्शी अलगाव (क्योंकि यदि बछड़े को अपनी माँ के पास रखा तो वो उसका सारा दूध पी जायेगा ...निर्विवाद रूप से जिस पर उसका जन्मसिद्ध अधिकार है, जबकि डेयरी उद्योग वो दूध चुरा कर आपको बेच पैसे कमाना चाहता है),
- कृत्रिम रूप से दूध-उत्पादन बढ़ाने के लिए गाय के ओक्सिटोसिन जैसे रासायनिक हार्मोन के इंजेक्शन लगाना,
- एक छोटे से अप्राकृतिक एवं गंदगी भरे स्थान में एक छोटी-सी रस्सी द्वारा जीवन-भर के लिए उन्हें बाँध देना
- उन्हें कृत्रिम एवं अप्राकृतिक खुराक देना,
- चिन्हित करने के लिए गर्म लोहे से दागना,
- कान एवं नाक छिद्रित करना,
- पूँछ एवं सिंग काटना
- बालों को साफ करने के लिए थनों को झुलसाना, आदि
और ये सब मात्र हमारे लिए उनका दूध प्राप्त करने के लिए ..जो कि वे नैसर्गिक रूप से अपने बच्चों के लिए ही पैदा करते हैं!
लेकिन हमारे देश में तो अधिकांश दूध किसानों या छोटे-छोटे डेयरी-फार्मों से लाया जाता है! वो तो बड़े प्रेम से पालते हैं इन्हें!!!
यह भी एक बड़ा मिथक है।
जब भी डेयरी संबंधी हिंसा का जिक्र किया जाए तो हर डेयरी उपभोक्ता यह सोच कर अपने आप को पाक-साफ घोषित करने का प्रयास करता है कि वह जो दुग्ध-उत्पाद खरीदता है उसके बाबत ऐसी कोई क्रूरता या हिंसा नहीं होती। परंतु तथ्य यह है कि बिना हिंसा के किसी भी जानवर का दूध प्राप्त ही नहीं किया जा सकता है।
मैं कई छोटे-बड़े गाँवों के डेयरी फार्म मालिकों से मिला हूँ, उनके फार्म देखें हैं, घरों में पाले जाने वाले मवेशियों को देखा है, उनके पालकों से बातचीत की है, अनेक गौशालाओं के हालात व्यक्तिगत रूप से जाकर एवं उनके कर्मचारियों से बातचीत के द्वारा जाने हैं। ये मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उनमें से कोई भी पशुओं पर हो रही क्रूरता एवं हिंसा से इनकार नहीं कर सकता। हिंसा सर्वत्र विद्यमान है और उसे आपके ही सहयोग से रोका जा सकता है। छोटे-बड़े सभी पशु-पालकों के यहाँ पशु का कृत्रिम गर्भाधान एक स्वीकृत एवं स्थापित प्रक्रिया है। व्यावसायिक पशु-चिकित्सकों की सेवाओं का सामान्यतः सब जगह अभाव है। कोई भी किसान नर बछड़े की जिम्मेदारी नहीं लेता है। परंतु यह भी तथ्य है कि लगभग आधी बार गाय के प्रसव के दौरान एक नर-बछड़े की उत्पत्ति होती है। यह प्रकृति का नियम है। अतः इन सभी नर-बछड़ों को किसी दलाल के हाथों बेच दिया जाता है कत्लखानों के लिए अथवा गलियों में भूखे मरने को छोड़ दिया जाता है या मंदिरों में ले जाकर बाँध दिया जाता है या फिर गौशालाओं को दे दिया जाता है, जहाँ से उन्हें बाद में कत्लखानों को दे दिया जाता है। चाहे कुछ भी करो लेकिन इतना तय है कि सभी नर बछड़े भूख से प्रताड़ित हो, यातना पूर्ण जीवन जीते हुए समय से पहले ही एक कष्टदायक व असामयिक मृत्यु को प्राप्त होते हैं। उनका गुनाह इतना ही था कि वे नर पैदा हुए थे और इस कारण दूध नहीं दे सकते थे।
अधिकांश लोग ये समझ ही नहीं पाते हैं कि क्रूरता एवं हिंसा पशु-पालन में अंतर्निहित है। किसी भी व्यक्ति को किसी भी जीव को कैद कर, महज अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु उसे अपना गुलाम बनाने का कतई कोई हक नहीं है। नाक-कान का छेदन कर, उनको एक छोटी-सी रस्सी से बाँधकर जीवन-भर अपने वश में करने के लिए उनको ये अमूल्य जीवन नहीं मिला! यद्यपि छोटे डेयरी व्यवसायी दूध दुहने के लिए स्वचालित विद्युतीय मशीनों का प्रयोग नहीं करते, वे अपने हाथों से उनके थनों को मसोस कर दूध निकालते हैं। किसी भी मादा के बिना अनुमति के उसके गुप्तांगो को छूने का अधिकार उन्हें किसने दिया? ये उनकी मर्यादा का उल्लंघन है, उनके स्वाभिमान और प्रतिष्ठा पर प्रहार है। इतना ही नहीं, ये उनकी हत्या की ओर बढाया गया पहला कदम है।
दूध दुहने के कारण हत्या कैसे होती है?
हिंदुस्तान डेयरी उत्पादों का आज दुनिया में सबसे बड़ा उत्पादक है। यही कारण है कि आज भारत दुनिया भर में गौ-मांस का सबसे बड़ा निर्यातक है और चमड़े का भी सबसे बड़े निर्यातकों में से एक है। यह सभी उद्योग एक दूसरे पर परस्पर आश्रित हैं। भारत की श्वेत-क्रांति के जनक और मिल्क-मेन ऑफ़ इंडिया के नाम से विख्यात श्री वर्गीज़ कुरियन ने कत्लखानो पर सरकार द्वारा लगाये जाने वाले प्रतिबंधों का खुलकर विरोध किया था। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि कत्लखानों पर प्रतिबंध लगाने से डेयरी उद्योग और श्वेत-क्रांति पर विपरीत असर पड़ेगा क्योंकि जब एक गाय शुष्क हो जाती है तो कत्लखाने वाले उसे खरीदने के लिए जो पैसा देते हैं, उसकी सहायता से ही किसान नई गाय खरीद पाते हैं।
इसके आलावा यह भी गौर करने वाली बात है कि भारत में कुल मवेशियों की संख्या लगभग तीस करोड़ पहुँच चुकी है परंतु ये भी दुग्ध-उद्योग की बढ़ती मांग को पूर्ण करने में अक्षम है। अतः मांग की पूर्ति हेतु हमें अपने मवेशियों की जनसंख्या को और बढ़ाने की आवश्यकता है एवं उनकी नस्ल-सुधार कर उनसे और अधिक दूध वसूलने की भी विवशता है। परंतु ये संभव नहीं है क्योंकि अभी भी हमारे देश में उपलब्ध मवेशियों के लिए पर्याप्त चारे की कमी है। कई जगहों पर मवेशी भूखे मर रहे हैं। भारतीय घास और चारा अनुसंधान संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में अभी 63.5% हरी घास की कमी है और 23.5% सूखे चारे की कमी है। इसी प्रकार कुल चारागाह भूमि और वन-भूमि में भी काफी कमी आई है। मतलब कि एक ओर दुग्ध उत्पादों की बढ़ती खपत के चलते पशुओं की संख्या बढानी पड़ रही है वहीँ दूसरी ओर शहरीकरण और विकास के कारण वन-भूमि और चारागाह क्षेत्र घटते जा रहे हैं।
अतः हम पहले ही क्षमता से दुगुने से भी अधिक मवेशी ढो रहे हैं। और यह तब जब हम करोड़ों नर-बछड़ों और बूढ़ी या शुष्क हो चुकी गायो का कत्ल कर देते हैं। लेकिन अगर कत्लखानों पर बिलकुल ही प्रतिबंध लगा दिया जाए तो हमें इन कत्ल किये जाने वाले जीवों को भी पूरे 20-25 वर्ष के जीवनकाल के लिए समुचित भोजन की व्यवस्था करनी होगी जो कि संभव नहीं है। इन सबके अलावा हमें डेयरी की बढ़ती मांग के चलते मवेशियों की बढ़ती जनसंख्या और उन्नत नस्लों की बढ़ती खुराक के लिए भी प्रावधान करना होगा। हमारी जनसंख्या के बढ़ने के अलावा प्रति-व्यक्ति डेयरी उपभोग में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है। अतः हम अभी जितने मवेशियों को पैदा कर रहे हैं उससे भी कई अधिक मवेशियों को पैदा करना होगा, उनके लिए भोजन का बंदोबस्त करना होगा और अंततः उन्हें कत्ल करना होगा। यदि आप स्वयं गणना करें तो पाएंगे कि सभी कत्लखानों को बंद करने के बाद भी डेयरी उद्योग सतत जारी रहने पर, प्रति वर्ष हर गाय को गर्भवती किया जायेगा। यह 5-6 वर्षों में ही मवेशियों कि जनसंख्या लगभग दस गुना तक बढ़ा देगा। इतनी अधिक संख्या में मवेशियों को खिलाने के भोजन की बात तो दूर, रखने तक के लिए स्थान नहीं बचेगा। अतः हमें मजबूरन कत्लखाने चलने ही पड़ेंगे ...बल्कि चलाये ही इसीलिए जा रहे हैं। बिना मांस-उत्पादन किये डेयरी उद्योग का संचालन असंधार्नीय गतिविधि है। अतः हमारे दूध एवं सभी दुग्ध-उत्पादों के उपभोग के कारण मवेशियों की हत्या होती है, चाहे हम मांस या चमड़े का प्रयोग न करते हो। सभी शाकाहारी कहे जाने वाले दुग्ध-उत्पादों के उपभोक्ताओं का कत्लखानों के संचालन में उतना ही बड़ा योगदान है जितना कि माँस और चमड़े के उपभोक्ताओं का। जो लोग दूध का सेवन करते हुए गौ-मांस का विरोध करते हैं वो या तो अज्ञानी हैं या फिर दोहरे मानदंडों को अपनाने वाले दुगले लोग!
अगर आप वाकई मवेशियों को कत्लखाने जाने से रोकना चाहते हैं तो फिर आप शाकाहारी होने का ढोंग न करें और निरवद्यता को अपनाये।
यह एक ऐसा विषय है जिसके बारे में कोई सुनना नहीं चाहता और जान कर भी अनजान बना रहना चाहता है । अगर जान लिया, समझ लिया और समर्थन करा तो दूध को हमेशा के लिए ना कहना पड़ेगा और दूध की लत ऐसी है जैसी अफीम की होती है छूटे नहीं छूटती ।
दूध में केसिन नामक पदार्थ होता है जिसकी लत वैसी ही होती है जैसी की अफीम की ।
bohut acha post hai
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