सुख : स्वरूप और चिन्तन (भाग # १) | Happiness : Nature and Thought (Part # 1)
सुख : स्वरूप और चिन्तन (भाग # १) | Happiness: Nature and Thought (Part # 1)
सुख की प्राप्ति सभी का इष्ट है । सुख की कल्पना ही मधुर प्रतीत होती है । कौन ऐसा अभागा होगा जो सुख नहीं चाहता ?
किन्तु सुख क्या है तथा उस सुख की प्राप्ति, सच्चे सुख की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है, इस बात को सब नहीं जानते । संसार के अधिकांश मानव भौतिक प्रलोभनों में पड़कर सच्चा सुख प्रदान करने वाली अमूल्य वस्तुओं को त्यागकर, दुःख प्रदान करने वाली सांसारिक माया के चक्र में पड़ जाते हैं । आकर्षण प्रबल से प्रबलतम होता है और सच्चे सुख का स्वर्ण-सिंहासन आँखों से ओझल हो जाता है ।
धन और संतान के मोह में पड़े हुए मनुष्य उन्हीं में डूबे रहते हैं और सुख का अनुभव करते रहते हैं । किन्तु वे नहीं जानते कि ये दोनों ही नाशवान हैं । नाशवान पदार्थ में चिरन्तन सुख कैसे रह सकता है ?
भौतिक-सुख का मूल हेतु पुण्य है । यदि शुभ पुण्य का उदय है तो समय विशेष तक धन तथा सन्तान सुखदायी हो सकते हैं । किन्तु यदि पाप का उदय है तो वे ही उलटकर दुःखदाई बन जाएंगे ।
अर्थात् पाप के परिपाक से अमृत भी भयानक कालकूट विष बन जाता है, मित्र शत्रु हो जाता है, बुद्धिमान व्यक्ति निर्बुद्धि हो जाता है तथा सज्जन भी दुर्जन का रूप धारण कर लेता है ।
धन इकट्ठा हो जाने से, उच्च कुल प्राप्त कर लेने से, बलवान बन जाने से ही सच्चा सुख प्राप्त नहीं हो जाता । यह सब चीजें तो जल के ऊपर लहराने वाली तरंगो के सदृश हैं । पवन के एक झोंके से ये लहरें उठती-गिरती रहती हैं । क्या कभी कोई व्यक्ति लहर को अपनी सशक्त भुजाओं में बांध पाया है ? क्या जल की बूंद-बूंद से कभी किसी की प्यास बुझ सकी है ?
अत: बाह्य पदार्थों की प्राप्ति के मनोरथों एवं विकल्पों को त्यागकर अपनी दृष्टि हमें भीतर की ओर करनी चाहिए । बाह्य पदार्थों में मन लगा रहेगा तो चित्त सदैव अशांत रहेगा तथा अशांत चित्त वाला व्यक्ति अन्याय और अनीति की ओर झुक जाएगा ।
सच्चे सुख की कामना करने वाले विवेकशील मानव का हृदय स्थिर महोदधि के समान होता है । उसके चित्त में किसी प्रकार का विकल्प नहीं होता तथा वह सन्तोष के अमूल्य मुक्ता-रत्न को धारण करता हुआ अन्याय और अनीति से सदैव दूर रहता है ।
सुख का आभास प्रदान करने वाले सांसारिक पदार्थ कभी तृप्ति प्रदान नहीं करते, वे तो तृषा एवं तृष्णा को अधिकाधिक तीव्र ही करते चले जाते हैं । चित्त भ्रमित होता चला जाता है तथा आत्मा के सहज गुणों पर आवरण प्रगाढ़ से प्रगाढ़तम होता चला जाता है ।
इसके विपरीत जो व्यक्ति सार-असार को पहचानता हुआ भौतिकता से विमुख होकर आत्म-गुणों की ओर उन्मुख होता है उसके जीवन में एक महान परिवर्तन उपस्थित होता है तथा उसके लिए शाश्वत सुख का द्वार खुल जाता है ।
The English translation of this post with the help of google translation tool as below:
Receiving happiness is fate of all. The imagination of happiness seems to be sweet. Who would not be happy that would not be happy?
But what is happiness and how can one attain that happiness, real happiness and happiness, do not know this thing all. Most of the world's human beings fall into material temptations, abandoning priceless things that provide true happiness, and fall into the cycle of worldly Maya, giving sorrow. Attraction is strongest and the golden throne of true happiness disappears from the eyes.
The people lying in love with money and children are immersed in them and they continue to experience happiness. But they do not know that they are both destructive. How can the eternal happiness in the destructive substance?
It is virtuous for the origin of material happiness. If there is a rise of auspicious virtue, wealth and children can be pleasurable for a long time. But if there is a rise of sin, then they will become overwhelmingly sad.
That is, the nectar also becomes a terrible cactus venom by the result of sin, the friend becomes enemy, the intelligent person gets confused and the gentleman also takes the form of a wicked person.
With the accumulation of wealth, by getting a high total, becoming a strong person does not get true pleasure. All these things resemble the waves that wave above the water. These waves rise and fall from one breath of wind. Has anybody ever got the wave tied in its strong arms? Has anybody's thirst been extinguished by the drop of water?
Therefore, by abandoning the intentions and options of obtaining external substances, we should make our eyes inward. The mind will remain in the external substances, then the mind will always remain turbulent and the person with unrestrained mind will tilt towards injustice and unity.
The heart of a discriminating human being who desires true happiness is similar to that of a stable man. There is no alternative in his mind and he always keeps away from the injustice and unity of holding the priceless Mukta-Ratna of satisfaction.
The worldly substances giving the impression of happiness never offer fulfillment; they tend to make trisha and craving more intense. The mind becomes confused and the cover on the innate qualities of the soul goes deeper than it becomes intensified.
On the contrary, the person who recognizes the essence is oriented towards self-property by turning away from the materiality and there is a great change in his life, and the gate of eternal happiness opens up for him.
इस संसार में सभी सुख चाहते हे सुख की कल्पना करते और कई प्रयास करते हे की केसे भी करके उन्हें सुख प्राप्त हो और कई तो अपने स्वार्थ को सुख का नाम दे कर किसी भी हद तक चले जाते हे उसे प्राप्त करने के लिए ये भी नहीं सोचते की इस से कितनो को पीड़ा हो रही हे इस लिए मेरा तो यही मानन हे अगर हम किसी को सुख देंगे तो हमे जरुर सुख मिलेगा इस संसार में अगर हमने कुछ लेने के बदले देने की रह पर चलने लगेंगे तो उस से हमे भी सुख मिलेगा और इस से अच्छा कोई रास्ता नहीं इस संसार में रहने का
@mehta
यदि आप पूर्ति के लिए दूसरों को देखते हैं, तो आप खुद कभी पूरे नहीं होंगे। अगर आपकी खुशी पैसे पर निर्भर करती है, तो आप कभी भी अपने साथ खुश नहीं रहेंगे। आपके पास जो कुछ है उसके साथ संतुष्ट रहें; जैसी चीजें हैं उसी तरह से उनका आनंद लें। जब आपको पता चलता है कि कुछ भी कमी नहीं है, तो दुनिया आपके लिए है।
@mehtaबहुत अच्छी बातें लिखी हैं आपने इस पोस्ट में .
पैसे से कभी सुख ख़रीदा नहीं जाता और दुःख का कोई खरीदार नहीं होता।
परन्तु ऐसा कहा जाता है कि दुःख बांटने से कम हो जाता है.
जी हाँ आपने सही कहा , कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जो कहेगा की आप अपने दुःख मुझे दे दो लेकिन हम अपने दुःख अपनों के साथ साझा कर सकते हैं।
किसी ने सोचा है कि हम सुख क्यों पाना चाहते हैं ????
दुःख भोगने से ही सुख के मूल्य का ज्ञान होता है।
बहुत ही सत्य बात कही है आपने, बिना दुःख के सुख के मूल्य का ज्ञान नहीं होता है.
जीवन खुशी से जिओ, सांसारिक सुविधाओं के साथ जिओ, मन को प्रसन्न रखें, अच्छे कर्म करो। यही सुख है।
दूसरों से तुलना करना, दुःख का सबसे बड़ा कारण है। यही दुख है।
जिसमे आपके मन और आत्मा को सुख की अनुभूति हो, वही सच्चा सुख है.
हालात के मारे लोगों की सेवा करके जो सुख मिलता है। उसका दुजा कोई सुख मुकाबला नहीं कर सकता।
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Bahut acha ha bhi, keep up good work
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