हमारा परम धर्म : दान ---- (भाग – २)

in #life6 years ago

हमारा परम धर्म : दान ---- (भाग – २)

आखिर दान का इतना महत्त्व क्यों है ?

इसलिए कि दान समस्त प्रकार की दुर्गतियों का नाश करता है । उससे मनुष्य के ह्रदय में से संकीर्णता निकल जाती है । उसका ह्रदय विशाल और विराट बन जाता है । उसकी सोई हुई मानवता जागृत हो जाती है । ह्रदय में प्रेम तथा दया की मन्दाकिनी बहने लगती है । इसके फलस्वरूप ऐसे व्यक्ति के आस-पास और दूर-दूर तक सहानुभूति का एक सुंदर वातावरण बन जाता है । उसके लिए संसार में कुछ भी वस्तु अप्राप्य नहीं रह जाती है और वह सारे संसार के लिए प्रेम तथा आदर का पात्र बन जाता है, विश्व के लिए एक आदर्श बन जाता है ।
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क्या दान करना सरल है ? शायद नहीं । अपने परिश्रम से उपार्जित की हुई सम्पत्ति में से दान देना सांसारिक लोगों को कठिन तो प्रतीत होगा ही । यही कारण है कि लोग लोभ और तृष्णा के मारे कौड़ी-कौड़ी के लिए लड़ मरते है । भाई-भाई एक-दुसरे का गला काटने को तत्पर हो जाते है । ऐसी स्थिति को देखते हुए लोगों में शास्त्रोक्त दस प्राणों के अतिरिक्त धन को ग्यारहवां प्राण मान लिया है क्योकि संसारी मनुष्य को यदि धन की हानि होती है तो उसके प्राण ही निकलने लगते हैं – निकल भी जाते है । अनेक लोगों के विषय में सुना जाता है कि व्यापार में घाटे का समाचार सुनते ही उनके ह्रदय की गति बंद हो गई । अर्थात् धन ही उनका ग्यारहवां प्राण था सो निकल गया ।

अत: यह कहा जा सकता है कि वे लोग बड़े पुण्यशाली, दिव्य, भाग्यवान व्यक्ति होते हैं जो अपनी गाढ़ी कमाई में से पर्याप्त धन परोपकार के कार्यों में खर्च कर सकते है । वे देवताओ से किसी प्रकार कम नहीं है । वे वीर है – दानवीर है । यह दान किसी दबाव से प्रेरित न होकर प्रसन्न भाव से, स्वेच्छा से ही होना चाहिए । जो लोग ऐसा कर पाते हैं वे मानवता की श्रेष्ठतम ऊँचाइयों पर यदि पहुँच जाएं तो इसमें आश्चर्य क्या ? ये उचाइयां देवत्व की स्थिति नहीं तो अन्य कौन-सी है ?

इसलिए जैन धर्म में भी दान को सर्वोच्य, प्रथम स्थान प्रदान किया गया है । दान देने वाले को स्वर्ग तथा उससे भी आगे मोक्ष का अधिकारी कहा गया है । भगवान महावीर के जीवन पर ही तनिक द्र्ष्टिपात कीजिए । वे स्वयं महादानी थे । बचपन से ही दान की प्रवृत्ति उनके अंतरमन में बसी हुई थी । दान से उन्हें बहुत प्रेम था । किसी भी निर्धन भूखे को वे देखते ही उसके अभाव को प्रभूत दान द्वारा दूर कर देते थे । वे राजकुमार थे । उन्हें खाने-पीने के लिए जो विशिष्ट व्यजंन दिए जाते उन्हें वे अपने साथियों में बांटकर ही खाते थे । जब वे राजपाट से विरक्त होकर उसे तृणवत त्यागकर मुनि होने लगे तब भी उन्होंने निरन्तर एक वर्ष तक दान दिया था । उस एक वर्ष में वे प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएं दान में दिया करते थे ।

इसी प्रकार अन्य तीर्थंकर भी महादानी थे । जैन-धर्म में दान, शील, तप तथा भावना ये चार भेद धर्म के बताए गए हैं । इनमे दान को ही प्रथम स्थान प्रदान किया गया है और यह उचित भी है । दान धर्म की दृष्टि से प्रथम स्थान पर कहे जाने योग्य ही है ।

एक समय भारत में शिक्षा प्राप्त करने के लिए दूर-दूर के देशों से – स्याम, जावा, सुमात्रा, चीन, यूनान आदि देशों से – विद्यार्थी आया करते थे । भारत के सुयोग्य आचार्य उन्हें प्रेमपूर्वक बिना किसी भेदभाव के विद्या का दान दिया करते थे । यह विद्या-दान था । विद्यार्थियों के लिए पाठशालाएं खोलना, पाठशालाओं में दान देना, छात्रवृति प्रदान करना, निर्धन छात्रों को पुस्तकें आदि पाठ्य सामग्री देना, विद्यार्थियों के लिए आवास की व्यवस्था करना – ये सब विद्या-दान में ही सम्मिलित हैं ।

जहाँ तक विद्या-दान का सम्बन्ध है, जैन-धर्म ने इस क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, उल्लेखनीय योगदान दिया है । आचार्य अमितगति ने तो यहां तक कहा है – “धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में चारों ही पुरुषार्थ विद्या के द्वारा ही सिद्ध होते हैं । अत: विद्या-दान देने वाला चारों ही पुरुषार्थ पाने का अधिकारी है ।”

भगवान महावीर ने भी कहा है – “पढमं नाणं तओ दया” अर्थात् पहले ज्ञान, उसके बाद तप आदि । इससे स्पष्ट है कि विद्या दान परम दान है तथा दान करना मनुष्य का परम धर्म है ।

इस निबन्ध के आरम्भ में राजा शिवि का द्रष्टान्त प्रस्तुत किया था । यह अभयदान का रूप था । अभयदान का अर्थ है – किसी मरते हुए प्राणी को बचाना, या किसी संकट में पड़े हुए प्राणी का उद्धार करना । इस दान को सर्वश्रेष्ठ दान कहा गया है और है भी ऐसा ही । अभयदान देने वाला प्राणी अपने प्राणों को बाजी लगाकर, अपने स्वयं के जीवन-मरण की चिन्ता त्याग कर ही यह दान कर सकता है । राजा शिवि ने अपने क्षत-विक्षत शरीर के रूप में अपने प्राणों को ही तो तराजू पर चढ़ा दिया था । गौतम बुद्ध ने घायल हंस की रक्षा की थी ।

इसी प्रकार मध्यकाल में भी सैकड़ों ऐसे उदाहरण इतिहास में से हमें मिल जाते हैं जबकि अनेक नरेशों ने अथवा अनेक जन सामान्य ने भी अपने शरण में आए हुए व्यक्ति की रक्षा करने के लिए अपे जीवन की चिन्ता नहीं की । राज्य अथवा धन-सम्पत्ति गई तो गई । जीवन रहा तो रहा, न रहा तो नहीं रहा किन्तु उन्होंने अभयदान दिया ही है ।

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Good article on Donation.

Hindu dharm me #Daan ko param dharm kaha gya hai. Daan tabhi sarthak hoga jab tak aapke man me ahinsa aur prem bhav hai.
Follw me bro..

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अध्यात्मम की ऐसी शिक्षा को सूचित और साझा करना जारी रखें

dhan ek eve de chej har jis se kuj be hasil kea ja sakta hae..nice article

hola. bendecida tarde. me encanta el tema de la donacion, sinembargo creo que va mas alla de lo que es dar algo mateial. tiene que ver con el amor que se entrega al otro. saludos. te sigo

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dan dena bhar sahi ni h dan kisko dena h kaha dena ye sabse sahi pahlu. niswarth bhao se diya gaya dhan hi dan kahlata h. kisi vastu ki ya kisi bhi prakar ki lalsa se kiya gaya dan sarthak dan ki shreni me ni ata. pls support me

wow nice concept sir..i like this..thanks for share your inportant concept.

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