दूध की पवित्रता का भ्रम, हमारा पशु-हिंसा में योगदान का बड़ा कारण है।
विगत सप्ताह मैंने अपनी एक पोस्ट के माध्यम से चर्चा के लिए एक प्रश्न रखा था -
बहुत से जवाब आये लेकिन अधिकाँश मिश्रित बातें ही थी। हम पारंपरिक सोच से उपजी विचारधाराओं और मान्यताओं के आधार पर एक जटिल और वास्तविक समस्या से निपटने का रास्ता उचित समझ रहे हैं। लेकिन वास्तविकता में हमारी सोच सत्य से परे है।
हम जाने-अनजाने इस सत्य को अस्वीकार कर रहे हैं या फिर अनदेखा कर रहे हैं। लेकिन सत्य तो सत्य ही रहेगा और वह यह है:
पशुओं से प्राप्त दूध निश्चय ही एक हिंसा-जन्य उत्पाद है और बिना दुग्ध-पान बंद किये मवेशियों का क़त्ल नहीं रोका जा सकता है।
मैं इस सन्दर्भ में अपनी विस्तृत पोस्ट कुछ ही दिनों में प्रकाशित करूंगा। तब तक मैं आपसे कुछ वर्षों पूर्व मेरे द्वारा एक जैन अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में दिए एक छोटे से प्रेजेंटेशन की रिकार्डिंग देखने का अनुरोध करूंगा। हालाँकि ये एक जैन धर्मावलंबियों की सभा थी फिर भी कुछ बिंदु शायद आपको स्पष्ट हो पाये!
अन्यथा मेरी इस विषय पर अगली पोस्ट को अवश्य पढियेगा क्योंकि एक छोटे-से प्रेजेंटेशन में सारी बातें मैं समझा नहीं पाया था।
सदा की भांति आप अपने कमेंट्स के माध्यम से भी मुझे इस मुद्दे पर अपने अमूल्य विचारों से अवगत कराते रहियेगा।
बहुत-बहुत साधुवाद!
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