बस यूँही इक वहम सा है वाक़िया ऐसा नहीं
बस यूँही इक वहम सा है वाक़िया ऐसा नहीं
आइने की बात सच्ची है कि मैं तन्हा नहीं
बैठिए पेड़ों की उतरन का अलाव तापए
बर्ग सोज़ां के सिवा दरवेश कुछ रखता नहीं
उफ़ चटख़्ने की सदा से किस क़दर डरता हूँ में
कितनी बातें हैं कि दानिस्ता जिन्हें सोचा नहीं
अपनी अपनी सबकी आँखें अपनी अपनी ख़्वाहिशें
किस नज़र में जाने क्या जचता है क्या जचता नहीं
चीन का दुश्मन हुआ इक मसला मेरी तरफ़
उसने कल देखा था क्यों और आज क्यों देखा नहीं
अब जहां ले जाये मुझको जलती बुझती आरज़ू
में भी इस जुगनू का पीछा छोड़ने वाला नहीं
कैसी कैसी परसिशीं अनवरध रुलाती हैं मुझे
खेतियों से किया कहूं मैं अब्र क्यों बरसा नहीं
img credz: pixabay.com
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