Ghazal

in #love7 years ago

पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून
बेतरतीबी से बढ़े हुए नाखून|

कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दागिल पाँव
जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव|

टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस
पिंडलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस|

कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़
जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़|

गट्टों-सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन
कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण|

छाती के नाम महज हड्डी दस-बीस
जिस पर गिन-चुन कर बाल खड़े इक्कीस|

पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरूद
चुकता करते-करते जीवन का सूद|

बाँहें ढीली-ढाली ज्यों टूटी डाल
अँगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल|

छोटी-सी गरदन रंग बेहद बदरंग
हरवक्त पसीने का बदबू का संग|

पिचकी अमियों से गाल लटे से कान
आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान|

माथे पर चिंताओं का एक समूह
भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह|

तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल
विद्युत परिचालित मखनातीसी चाल|

बैठे तो फिर घंटों जाते हैं बीत
सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत|

कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यंत कुमार ।

Poet dushyant kumar tyagiIMG_20170622_103007.jpg

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