Ghazal
पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून
बेतरतीबी से बढ़े हुए नाखून|
कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दागिल पाँव
जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव|
टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस
पिंडलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस|
कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़
जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़|
गट्टों-सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन
कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण|
छाती के नाम महज हड्डी दस-बीस
जिस पर गिन-चुन कर बाल खड़े इक्कीस|
पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरूद
चुकता करते-करते जीवन का सूद|
बाँहें ढीली-ढाली ज्यों टूटी डाल
अँगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल|
छोटी-सी गरदन रंग बेहद बदरंग
हरवक्त पसीने का बदबू का संग|
पिचकी अमियों से गाल लटे से कान
आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान|
माथे पर चिंताओं का एक समूह
भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह|
तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल
विद्युत परिचालित मखनातीसी चाल|
बैठे तो फिर घंटों जाते हैं बीत
सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत|
कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यंत कुमार ।
Poet dushyant kumar tyagi
Good choice and a very good Ghazal.
Wah miya!