हमारा परम धर्म : दान ---- भाग #१

in #life6 years ago

हमारा परम धर्म : दान

मानव-जीवन में धर्म का जो स्थान है वह उसके अस्तित्व से जुड़ा हुआ है तथा उसकी आत्मोन्नति का भी आधार है। जीवन में धर्म न हो तो जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए । यदि किसी प्रकार से जीवन कुछ काल के लिए टिका भी रह जाए तो वह जीवन एक मानव का जीवन तो नहीं ही होगा । वह जीवन तो पशु जीवनवत ही हो सकता है । अत: यह तो मानकर ही चलना चाहिए कि मानव-जीवन में धर्म अनिवार्य है ।
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अब प्रश्न यह रहता है कि धर्म क्या है ?

इस विषय पर अनादिकाल से विचार मन्थन होता रहा है तथा होता भी रहेगा । विद्वानों, तत्त्वज्ञों, मुनियों, आचार्यों आदि ने सदैव धर्माचरण की शिक्षा दी है । अपने-अपने चिंतन के अनुसार धर्म का स्वरूप रहा है तथा प्रत्येक ने गुण विशेष पर बल दिया है । किसी ने दया को, किसी ने करुणा को, किसी ने अहिंसा को, किसी ने ब्रह्मचर्य को, किसी ने क्षमा को तथा इसी प्रकार से भिन्न-भिन्न विचारकों अथवा धर्माचार्यों ने भिन्न-भिन्न गुणों अथवा भावनाओं को विशेष महत्त्व दिया है ।

निश्चय ही उपरोक्त सभी भावनाएं धर्म का अंग हैं । किन्तु प्रस्तुत निबन्ध में हम दान धर्म के विषय में चिंतन करना चाहते हैं । किसी महापुरुष ने कहा है – “दान-धर्म सबसे बड़ा धर्म है ।” हमारा भारतवर्ष तो धर्म प्रधान देश है ही । आदिकाल से ही भारतवर्ष में बड़े-बड़े दानी होते चले आए हैं । उनकी दान-भावना दे गुण हम आज भी गाते हैं और आने वाली पीढियां भी उनके इस गुण का स्मरण करती रहेंगी । उदाहरण के लिए ‘महादानी कर्ण’ की कथा हम सभी जानते हैं । प्राण रहे अथवा न रहे किन्तु कोई याचक उनके द्वार से निराश चला जाए, यह सम्भव ही न था । वे दिव्य कवच एवं कुण्डल के साथ उत्पन्न हुए थे । जा तक वे कवच एवं कुण्डल उनके शरीर से जुड़े थे, तब तक उनके शरीर का नाश कोई भी शत्रु नहीं कर सकता था । वे इस बात को जानते थे । एक बार जब इन्द्र ब्राह्मण का वेश बनाकर याचक रूप में उनके द्वार पर आया और उनके वे कवच-कुण्डल मांगे तो महादानी कर्ण ने सब कुछ जानते हुए भी अपने प्राणों का मोह त्यागकर वे कवच एवं कुण्डल याचक को दान में दे दिए । दान के ऐसे उज्ज्वल उदाहरण भारत के अतिरिक्त और किसी देश में नहीं मिल सकते ।

राजा शिवि की परीक्षा भी इसी प्रकार ली गई । इन्द्र ने अपनी माया फैलाई । एक भयभीत कपोत शिवि की गोद में आ गिरा और ‘त्राहि माम्-त्राहि माम्’ पुकारने लगा । उसके पीछे ही एक बाज आ रहा था । बाज का कथन था कि वह भूखा है – उसे अपना आहार चाहिए । राजा शिवि ने अपने शरीर का एक-एक अंग काटकर तराजू में रखना आरम्भ किया कि कबूतर के वजन के बराबर मांस बाज को दे दिया जाए । किन्तु इन्द्र की माया थी । वजन बराबर होता ही न था । राजा शिवि ने जब अपने दोनों हाथ-पैर काटकर तराजू में रख दिए फिर भी वजन पूरा न हुआ तो वे स्वयं ही तराजू में बैठ गए । एक कपोत को प्राण देने के लिए उन्होंने अपने जीवन को ही दान कर दिया ।

हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि धन का दान तो किया जाता है । किन्तु सच्चा दानी तो अपने प्राणों का दान कर देने से भी पीछे नहीं हटता । यह दान की श्रेष्ठतम स्थिति था स्वरुप है ।

आखिर दान का इतना महत्त्व क्यों है ?

अब यह हम इससे आगे की पोस्ट में जानेगें ।

Steeming परम धर्म : दान

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परम धर्म दान !

@mehta सही कहा सर जी , दान से बड़ा ना कोई पुण्य और ना कोई धर्म , और धर्म की कोई परिभाषा नहीं,
दान-धर्मत परो धर्मो भत्नम नेहा विद्धते।

Ek dam dam shi kaha mehtaji apne Dann insan ka pram dharm hona chahiye jo chij hamare pass jarurt se jyada hy usee hame jarurt mand ko de dena chahiye

ekdam sahi kaha apne we should have big heart to give

ये बड़ा दिल सभी में नहीं होता, मुझे ही देख लो कहा इतना बड़ा दिल है.
comment के लिए धन्यवाद.

हा होता तो नहीं पर हम बदल भी सकते है खुद को😊 welcome

krna ek maha dani tha lekin kaurav ka sath dena uske jivan ki sabse badi galti thi. very nice article.

आपकी बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है, पर मैं आपकी बात से पूरी तरह से सहमत नहीं हूँ.
समीक्षा के लिए शुक्रिया.

@yutika -कर्ण ने कोई गलती नहीं की , जो आप के बुरे वक्त में साथ दे वही आप का सच्चा मित्र होता है , दुर्योधन ने कर्ण को उस समय अपना मित्र बनाया जब सभी उसके सूतपुत्र होने का मजाक उड़ा रहे थे , रही बात धर्म और अधर्म की तो दुर्योधन का साथ छोड़ना भी अधर्म होता।

आज कर्ण को सभी दानवीर कर्ण बुलाते है महादानियो में उसका नाम लिया जाता है किन्तु अगर कर्ण पांडव के साथ हो जाते तो आज संसार उनको महादानी नहीं अपितु एक मतलबी और धोकेबाज कर्ण के नाम से जानती। (ऐसा मेरा मानना हैं)

Sir aapki tarah hum bhi hindi me blog likhte hai @mehta

आप चाहे जिस भाषा में लिखे. हिंदी में लिखने के लिए google language tool download कर ले. और फिर जो चाहे लिखे.

अब यह विपरीत हो गया। लोग लालच बनने और धन इकट्ठा करने में व्यस्त हैं।

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                 - shashwat51


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Hi mehta sir...plz follow me and guid me and upvote me sir...i hv upvoted and followed you

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