You are viewing a single comment's thread from:
RE: धर्म का प्राणतत्व : विनय (अन्तिम भाग # ३) [ The Life of Religion : Modesty (Final Part # 3)]
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भव- ति भारत ।
अभ्युत्थान- मधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्- ॥४-७॥
परित्राणाय- साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्- ।
धर्मसंस्था- पनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥
जब जब भी धर्म का विनाश हुआ, अधर्म का उत्थान हुआ,
तब तब मैंने खुद का सृजन किया, साधुओं के उद्धार और बुरे कर्म करने वालो के संहार के लिए,
धर्म की स्थापना के प्रयोजन से, मै हर युग में, युग युग में जनम लेता रहूँगा।