आत्म -निर्भरता
जो मनुष्य अपनी आवश्यकताओं के लिए , अपने जीवन की सुरक्षा के लिए अथवा प्रतिदिन की समस्याओं के हल के लिए दूसरों पर निर्भर करता है , उसे कमजोर ,पिछड़ा हुआ अथवा अपाहिज समझा जाता है। वह जिनके आश्रय पर अथवा जिनके दान -दया पर निर्भर करता है उनके सम्मुख उसका स्वमान मंद हो जाता है और आँखें भी शर्म के मारे झुक जाती हैं। ऐसा व्यक्ति स्वंय में कभी गौरव अनुभव नहीं कर सकता। वह दूसरों के ऋण से इतना तो झुका होता है कि अपने ऋणदाताओं की कमजोरियों को देखते भी उसे अपनी अंतरात्मा की आवाज़ के विरुद्ध प्रशसनीय गुण माने पर मज़बूर होना पड़ता है। इस प्रकार न केवल वह व्यक्तित्व को खो बैठता है बल्कि उसका अपना कोई निजी जीवन , कोई आदर्श , कोई पुरुषार्थ भी नहीं टिक पाता। अतः यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि दूसरों पर निर्भर करना एक प्रकार से उनकी दासता को स्वीकार करना है और अपने जीवन की बागडोर दूसरों के हाथ में सौंपना है।
हम देखते हैं कि इस संसार की रचना ऐसी है कि समाज का हरेक व्यक्ति परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से किसी -न -किसी प्रकार से एक दूसरे पर आश्रित है। जैसे एक छोटे से संयुक्त परिवार के सदस्य अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए ,सुरक्षा के , सुख सुविधा के लिए एक दूसरे पर निर्भर करते हैं , वैसे ही एक बृहद समाज के सदस्य अथवा एक देश के नागरिक भी अपनी आवश्यकताओं के लिए एक -दूसरे पर निर्भर करते हैं। इतना ही नहीं , आज तो यातायात के तीव्र वेगि साधनों के उपलब्ध होने के कारण संसार इतना छोटा हो गया है कि एक देश भी अन्य देशों से ऐसा तो जुड़ा हुआ है कि वे सभी भी अपने सुख , अपनी सुरक्षा , अपनी प्रगति , अपने विकास के लिए एक -दूसरे पर आधारित है।
धन्यवाद
@himanshurajoria
निर्भर होना होना, गलत तो नही, निर्भर ही रेहान गलत है। ...?
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