आत्म -निर्भरता / अंतिम भाग -2
क्या पूर्णतया निराश्रित जीवन संभव है ?
ऐसी स्थिति में आत्म -निर्भरता का क्या अर्थ है ? हम देखते हैं कि एक देश में यदि कुछ धातु अधिक पाए जाते हैं तो दूसरे देश में मिट्टी के तेल के कुए हैं और तीसरे देश में वनस्पति -पदार्थ , खाद्य पदार्थ अथवा फल -फ्रूट का बाहुल्य है। जब प्रकति ने ही अन्न ,जल ,धन ,पशु इत्यादि का इस प्रकार वितरण कर रखा है तो फिर एक देश को अपने यहाँ अप्राप्य वस्तु के लिए दूसरे देश पर तो निर्भर तो करना ही होगा। ठीक इसी प्रकार , जब समाज में एक व्यक्ति किसी एक कला में निपुण है , दूसरा किसी दूसरे कार्य का विशेषज्ञ है , तीसरा किसी तीसरे कार्य में सक्षम है और चौथा किसी चौथे व्यवसाय को अपनी योग्यता से कर रहा है तब एक व्यक्ति का दूसरे से अनुभव , उसकी कार्यकुशलता , उसके अर्जित ज्ञान और उसके संस्कारजन्य गुण का आधार लेना तो स्वाभाविक ही होगा। जब आज की अर्थ -व्यवस्था और सामाजिक गठन ही ऐसा है तब हम आत्म -निर्भरता के गुण को किस रूप में धारण करना चाहते हैं ?
आत्म -निर्भरता का अर्थ
यहाँ पहले यह स्पष्ट कर देना जरुरी है की आत्म -निर्भरता हमारे व्यक्तिगत दृष्टिकोण , हमारी सामाजिक निति , हमारे आर्थिक आदर्श और इससे भी ऊपर हमारे अध्यात्म दर्शन के मेरुदंड को इंगित करता है। व्यक्तिगत दृष्टिकोण के रूप में आत्म -निर्भरता का अर्थ यह है कि हमारी आवश्यकताएं न्यूनतम हों। ऐसा नहीं की हम अपनी इच्छाओं और कामनाओं को भी बढ़ाते जाएं और इनकी पूर्ति के लिए ही अपना आंतरिक सुख , अपने मन की विश्रान्ति और अपनी आत्मा का उत्कर्ष ही खो दें। लम्बा फैलाव फैलाने वाला व्यक्ति अन्ततोगत्वा स्वंय अपने फैलाव को समेटना चाहते हुए भी संकल्पों के भंवर से निकल नहीं पाता है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी आवश्यकताओं को उस सीमा तक रखे जिस सीमा तक वह निभा सकता हो।
सामाजिक निति और आर्थिक आदर्श के रूप में आत्म -निर्भरता का यह भाव है कि हम ऐसा प्रयास करें कि दूसरे देशों के ऋणी न हों और अपने आर्थिक ढांचे की सुदृढ़ता के लिए दूसरों के अधीन न हों। दूसरे शब्दों में हम अपने राष्ट्र के गौरव को और अपने देश के स्वमान को किसी भी हालत में त्याग कर भिखारी न बन जाएं। बल्कि कष्टों का सामना करते हुए भी यथा संभव अपनी आवश्यकताओं को या तो स्वंय पूरा करें या दूसरों से दयनीय अवस्था में सहायता लेने की बजाय बराबर के मित्र के नाते से अथवा भाईचारे में ही सहयोग लें।
इस सबसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम भारतवासी आत्म - निर्भरता को भौतिकवादी दृष्टिकोण से न देखकर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें। आध्यात्मिक अर्थ में "आत्म " अथवा "आत्मा" शब्द शरीर से भिन्न एक शाश्वत एवं चेतन सत्ता का नाम है। वही हम सबका अपना स्वरुप है। यह पंच भौतिक शरीर आत्मा के लिए एक अनमोल साधन है , यह आत्मा का निवास स्थान है , यह आत्मा के विभिन्न उपकरणों का एक अदभुत संयोजित और सुव्यवस्थित समूह है अथवा सांसारिक यात्रा के लिए यह एक विलक्षण रथ है और आत्मा के सुख -दुःख का साधन भी है। परन्तु जब मनुष्य स्वंय को एक समर्थ चेतन और एक सशक्त आत्मा मानने के बजाय इस देह के नाम, रूप , लिंग , जाती इत्यादि को निज का परिचय मान लेता है , तब वह अपने अस्तित्व को खो बैठता है , तब ही विकृत प्रवृतियों का उसमें प्रादुर्भाव होता है और तब ही वह अनेक कमियों और कष्टों के कारण स्वंय को दीन और हीन मानता हुआ दूसरों का आश्रय ढूंढ़ता है। "अतः यथार्थ में आत्मा -निश्चय ही आत्म -निर्भरता की कुंजी है। "
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