समर्पण
समर्पण
आध्यात्मिक विकास के लिए दो तरह की साधनायें हैं --एक पुरुषार्थ की , दूसरी समर्पण की। कुछ साधक स्वंय के पुरुषार्थ में विश्वास रखते हैं। वे पूर्ण स्वावलम्बी होते हैं। परम -आत्मा की करुणा पर भी वे आश्रित नहीं होना चाहते। उनकी साधना संकल्प की पूर्णता की साधना है। वे अपने तीव्र संकल्प द्वारा आध्यात्मिक सिद्धि को प्राप्त करते हैं। परावलम्बन को वे आध्यात्मिक मार्ग की बाधा समझते हैं। बुद्ध और महावीर की साधना पुरुषार्थ की और संकल्प की साधना है। अतः उसे "श्रमण" संस्कृति कहा जाता है -- वह संस्कृति जिसकी प्राप्ति श्रम द्वारा हो। चैतन्य तथा मीरा की साधना समर्पण की साधना है। हमें कुछ और नहीं करना है , केवल अपने को पूर्णतया परमात्मा के हाथों छोड़ देना है। फिर वह सब कुछ हमारे लिए कर देता है।
समर्पण की साधना सहज है
पुरुषार्थ की और संकल्प की साधना अति श्रम साध्य है। अतः यह यह सबके लिए संभव नहीं। समर्पण की साधना सहज है। इसमें हमें अपने को परमात्मा पर पूर्ण रूपेण छोड़ देना है तथा अपनी तरफ से कोई बाधा उपस्थित नहीं करनी है। जैसे बिल्ली का बच्चा माँ के लिए कोई बाधा उपस्थित नहीं करता। परमात्मा हमारे परमपिता , परम कल्याणकारी हैं। वे करुणा के सागर, प्रेम के सागर तथा ज्ञान के सागर हैं। उनके हाथों में अपने जीवन -नौका की पतवार छोड़ देने पर नौका कदापि पथ भ्रष्ट नहीं हो सकती। लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि हम अपनी तरफ से चिंता छोड़ कर परमात्मा के श्रेष्ठ काम का साधन मात्र बन जाएं। उसमें हमारा कल्याण ही होगा। यह सृष्टि नाटक एक बना बनाया खेल है। उसका प्रत्येक पार्ट हमारे कल्याण के लिए ही है। उसमें संशय उठाना व्यर्थ है। अतः हर्षित रह हमें सृष्टि -नाटक के प्रत्येक दृश्य को साक्षी हो देखते रहना चाहिए। परमात्मा पर हमें उतना ही अटूट विश्वास होना चाहिए जितना की एक बच्चे का माँ पर होता है।
धन्यवाद
@himanshurajoria
मेरा भाई बहुत अच्छा लगा। ऐसा लिखा करो। हो सके तो इंगलिश में ट्रांसलेटर करो ताकी इस तरह की सन्देश बहुत दूर तक फैले।
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जी हाँ भाई जरूर करेंगे इंग्लिश में ट्रांसलेट।
धन्यवाद आपका कमेंट करने के लिए।