महावीर की शाश्वत वाणी भाग-२

in #hindi6 years ago

प्रिय बंधुओं!

कल से मैं आपको "महावीर की शाश्वत वाणी" लघु पुस्तिका से उद्धृत अंशों से अवगत करवा रहा हूँ। यहाँ पोस्ट करने पर पता चला कि यह कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गई है। लगता है मुझे इसके एक-दो टुकड़े और करने पड़ेंगे। अतः आप थोडा धैर्य पूर्वक पढियेगा!

मेरी कल की पोस्ट में आपने पढ़ा होगा कि:

भगवान महावीर की वाणी तो शाश्वत है।

मैंने एक लघु पुस्तिका में महावीर की उक्तियों और कथनों का संकलन कर उनका अपनी समझ से प्रतिपादन कर प्रकाशित किया था। अनेक मित्रों के माध्यम से इसकी लगभग दस हजार प्रतियों का देश भर में वितरण किया गया था।

कुछ दिनों से मेरे पास कई शहरों से इसके सन्दर्भ में फोन आ रहे हैं। पुस्तक में उल्लेखित श्लोकों के स्रोतों को स्पष्ट करने का अनुरोध भी किया गया है।

अतः मैंने सोचा कि आप सभी को भी इस पुस्तिका से क्यों वंचित रखूं। मैं पुस्तिका में लिखी गई सामग्री को सन्दर्भ सहित यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:

अब आगे पढ़ें:


“सव्वे पाणा-जाव-सव्वे सत्ता ण हंतव्वा,
ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्देवेयव्वा।”

[आचारंग 1/4/1/131-132 (च., पृ. 33)]

अर्थात् :
किसी भी प्राणी, - यावत् – सत्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, न ही बलात् उनसे आज्ञा पालन कराना चाहिए, न उन्हें बलात् दास-दासी आदि के रूप में पकड़कर या खरीदकर रखना चाहिए, न उन्हें परिताप (पीड़ा) देना चाहिए, और न उन्हें उद्विग्न (भयभीत या हैरान) करना चाहिए। यही शाश्वत, शुद्ध एवं नित्य धर्म है।


अहिंसाअणुव्रत के पाँच अतिचार:

छेदनबंधनपीडनमतिभारारोपणं व्यतीचारा: ।
आहारवारणापि च स्थूलबधाद्व्युपरते: पञ्च ।।५४।।
(रत्नकरंड श्रावकाचार)

अर्थ:
१. छेदन अर्थात् अन्य मनुष्य-तिर्यंचों के कान, नाक, ओष्ठ आदि अंगों को छेदना वह छेदन नाम का अतिचार है।
२. मनुष्य-तिर्यंचों को बंधन आदि द्वारा बाँधना. बंदीगृह में डाल देना; तिर्यंचों को मजबूत बंधन से बांधना, पक्षियों को पिंजरे में बंद करना इत्यादि बंधन नाम का अतिचार है।
३. मनुष्य-तिर्यंचों को लात, घमूका, लाठी, चाबुक, आदि के प्रहार से कष्ट देना वह पीडन नाम का अतिचार है।
४. मनुष्य-तिर्यंचों तथा उनकी गाड़ी पर बहुत बोझ लादना वह अतिभारारोपण नाम का अतिचार है।
५. मनुष्य-तिर्यंचों को खाने-पीने से रोकना वह अन्नपान निरोध नाम का अतिचार है।
ये स्थूल हिंसा के त्याग गृहस्थ को त्यागने योग्य ही हैं।
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भावाभिप्राय:
यह सर्वविदित है कि बिना पशु को बंधक बनाये एवं उसका शोषण किए बगैर उसका दूध नहीं निकाला जा सकता है, अतः जैन शास्त्रोनुसार गाय पालने और दूध सेवन में हिंसा अन्तर्निहित है। किसी भी प्रकार का पशु-पालन अपने आप में एक घृणित एवं हिंसाप्रद कृत्य है।


जहा ते न पियं दुक्खं, जानिया एमेव सव्वजीवनं।
सव्वयारमुवौत्तो, अत्तोवम्मेना कुनासु दयां ।।

[समन-सुत्तम, गाथा 150]

अर्थात् :
जिस प्रकार से आपको दर्द स्वीकार्य नहीं है, उसी प्रकार से दूसरों को भी यह स्वीकार्य नहीं होता। इस समानता के सिद्धांत को समझते हुए सभी के साथ पूर्ण आदर और करुणा से बर्ताव करें।
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मक्खन, शहद, आइस्क्रीम और कुल्फी जैसे व्यंजनों को तो जैन शास्त्रों में स्पष्ट रूप से अभक्ष्य कहा गया है। (बाईस अभक्ष्यों की सूची में मक्खन, मधु, बर्फ और ओला शामिल हैं)।
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खीर-दहि-सप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं ।
परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं ।।

[उत्तराध्ययन सूत्र (अध्याय 30, गाथा 26)]

दूध, दही, घी आदि प्रणीत पान, भोजन तथा रसों के वर्जन को रसविवर्जन तप कहा गया है।

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चातुर्मास या पर्युषणों हेतु विशेष निवेदन:

चातुर्मास या पर्युषणों में आत्मोन्नति हेतु ब्रह्मचर्य का व्रत लेने वाले भाई-बहन ध्यान देवें कि ब्रह्मचर्य की नव-बाड़ों में से सातवी बाड़ है – ‘प्रणीत’। इसके अंतर्गत दूध, दही, घृतादि स्निग्ध पदार्थों का आहार वर्जित है। इनसे वीर्य की वृद्धि और उन्माद होते हैं और उससे काम की उत्पत्ति होती है।
इसी प्रकार द्वादश तपों में बाह्यांतर तप में से रस-परित्याग की तपश्चर्या करने वाले श्रावक एवं साधक दूध का त्याग अवश्य करें।
यदि पञ्च विगयों के त्याग में से आप एक विगई का त्याग करना चाहें तो सर्वप्रथम दूध नामक प्रथम विगई का त्याग लेवें। पाँच विकृतियों में दूध, दही और घी को प्रथम तीन विकृति माना गया है। दूध, दही घी, मक्खन आदि को पं. आशाधरजी ने गोरसविकृति कहा है।

उत्तराध्ययन सूत्र में भी निम्न सूत्र है:

चत्तारि गोरसविगतिओं पन्नत्ताओ, तं जहा – खीरं, दहिं, सप्पिं, णवणीतं ।
(चार गोरसमय विकृतियाँ हैं – दूध, दही, घृत और मक्खन)


दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा,
तम्हा खलु नो निग्गंथे पणीयं आहारं आहारेज्जा।

उत्तराध्ययन सूत्र (अध्याय 16, गाथा 8)

अर्थात्
प्रणीत पान-भोजन करने वाले के ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, उन्माद पैदा होता है, दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है
अथवा वह केवलि-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए प्रणीत आहार न करें।
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निष्कर्ष:

जब अनेक जगहों पर जैन शास्त्रों ने दूग्ध उत्पादों को विकारोत्पदक, रोगोत्पादक आदि बताते हुए उनके सेवन का स्पष्ट निषेध करने को कहा है, तब यह सोचना बेमानी होगा कि जैन शास्त्र दुग्ध सेवन को प्रमाणित करता है। ऐसा सिद्ध करने वाला जैन शास्त्रों को दुगला सिद्ध कर देगा। यदि जैन एक शाश्वत धर्म है तो जैन आगमों और उसके सिद्धांतों का सही प्रतिपादन तत्कालीन समाज को उचित मार्गदर्शन देने हेतु ही हो सकता है अन्यथा नहीं।
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!! सव्व जीवा वि इच्छन्ति, जिवियम न मरीज्जियम !!


वर्तमानकालीन आचार्य उवाच:


जन्तुमुद्धरते धर्म: पतन्तं दु:ख संकटे।
दु:ख संकट में पड़े हुए प्राणी का उद्दार धर्म ही करता है।
-आचार्य श्री ज्ञानसागर जी


एक गिलास दूध में कम से कम दो बूँदें खून की और आठ बूंदे पस की गाय के दूध के साथ आता है। हम दूध से बनने वाले उत्पाद जैसे कि दूध, घी, पनीर, क्रीम, मावा आदि से बचने का जितना प्रयास करें उतना अच्छा है। इससे हम अपने धर्म के और निकट पहुंचेंगे, हम अपनी आत्मा के निकट पहुंचेंगे।

आपके दुग्ध उत्पादों के उपभोग से इनका उत्पादन बढ़ता है जिससे गाय-भैंसों को मारा जाता है और मूक पशुओं के प्रति हिंसा में वृद्धि होती है।

  • मुनि श्री विहार्ष सागर जी

आवश्यकता है अहिंसा-मूलक जीवनशैली को ठीक ढंग से प्रचारित करने की। धर्म की व्याख्या युगानुरूप करनी चाहिए। वीगन लोग जो कोई पशु-उत्पाद दूध आदि का प्रयोग नहीं करते वे शाकाहार से भी ऊपर उठ गए हैं। इससे सही मायने में अहिंसा का प्रभाव बढ़ रहा है। हमें धर्म की जटिलता को नहीं, उसके वास्तविक स्वरुप को सरल तरीके से लोगों तक पहुँचाना चाहिए। हमारे मूल तत्व में अहिंसा तत्व है।

  • संत प्रमाण सागर जी

अहिंसा के बिना किसी भी धर्म को भारतीय संस्कृति स्वीकार नहीं करती। माँसाहार और कंदमूल की बातें तो तुम्हें समझ में आती है लेकिन मेरी बात सुनकर कहीं तुम्हारे कान के पर्दे न फट जाए कि जो दूध, दही और घी तुम्हारे घर में आता है वो तुम्हारा कुछ भी भला नहीं कर सकता। दूध, दही और घी खाने की लालसा तुम लोगों को मेरी बात नहीं समझने देती है।

  • मुनि लब्धि सागर जी

जीने के लिए खाना होता है, खाने के लिए जीना नहीं होता। भोजन ऐसे शुद्ध हो और सात्विक हो जो पेड़-पौधे और शाक से उत्पन्न होता हो। उसी में स्वयं जीने का और ओरों को जीने दो का भाव रहता है।
नब्बे प्रत्रिशत लोगों को दूध पीने से तरह-तरह की बीमारियाँ हो जाती है जैसे - जोड़ों का दर्द, गैस, दस्त, पेट खराब, अपच। अतः भगवन महावीर और उनकी आचार्य परंपरा में उन्होंने हमें रस-परित्याग में दूध का भी त्याग बताया। सप्ताह में एक दिन से शुरू करते हुए अपनी शक्ति अनुसार बढ़ते-बढ़ते जब आप सातों दिन का त्याग कर देंगे तब आप इन बीमारियों से भी बाख सकेंगे। हिंसक तरीके से उत्पादित दूध का प्रयोग न करें।

वीगन का मतलब यह नहीं कि आप दूध न पीवें। आप पियो दूध, आप सोयाबीन का दूध पियो, मूंगफली का दूध पियो, जई का दूध पियो और कई तरह के अहिंसक दूध ले सकते हैं।

  • मुनि श्री श्रुत सागर जी
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आज इतना ही।
यहाँ तक प्रेम से पढ़ने के लिए आप सभी का मेरा तहे दिल से आभार!

...शेष अगली पोस्ट में

जय जिनेन्द्र!

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आप को अनेक अनेक अभिनन्दन। ये महान उपदेषों को अति सरल हिंदी में बर्णित कर हमें अमृत वाणियों का ज्ञान सहज उपलब्ध कराया। साथ ही आप को अनेक सुभकामनाएँ।

जय जिनेन्द्र

आपका आभार एवं जय जिनेन्द्र!

बहुत अच्छा हैं।

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धन्यवाद!

जय जिनेन्द्र

जय जिनेन्द्र!

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