संतुष्ट जीवन (भाग -3 आत्म स्थिति)
आत्मा का मूल गुण है ही पवित्रता , प्रेम और शांति। जब तक आत्मा अपने इस मूल स्वरुप में स्थित है और उसे इस बात की चेतना है कि मैं आत्मा इस शरीर मैं विराजमान होकर शरीर के अंगों द्वारा कार्य चला रही हूँ , तब तक उसके साथ असंतुष्टता - जैसी कोई बात हो ही नहीं सकती। ज्ञान , आनंद , प्रेम और शांति ही तो आत्म -तुष्टि के मूल हैं।
बाहरी व्यक्ति और वस्तु हमारी इसी अवस्था को बिगाड़ने का यत्न करते रहते हैं। इन वस्तुओं के बाहरी रूप हमें काम ,क्रोध ,लोभ और अहंकार आदि विकारों की तरफ घसीटते हैं। सजग न रहने के कारण हम आत्म -विस्मृति में आकर अपने निज स्वरुप को भूल कर इन विकारों को ही अपना स्वाभाव बना लेते हैं अथवा पुण्यात्मा से पापात्मा बन जाते हैं। विषय -वासनाओं में अथवा इन्द्रिय -भोगों में लिप्त हो जाते हैं जिनसे हमें एक क्षण के लिए सुख और संतोष तो प्राप्त होता है परन्तु दूसरे ही क्षण हम फिर दुःखी और अशांत दिखाई देते हैं। आँख मिचोली का खेल चलता ही रहता है। शरीरधारी स्नेही का मिलन एक क्षण के लिए सुख प्रदान करता है परन्तु शरीर नश्वर होने के कारण उस मिलन में वियोग निहित है और इसलिए मिलन के सुख में वियोग का दुःख भी निहित है। यही बात संसार के सभी संबंधों के विषय में लागू होती है। जब तक हम अपनी आत्म स्थिति में स्थित होकर इन बदलते स्वरूपों और संबंधों को साक्षी -द्रष्टा के रूप में नहीं देखेंगे तब तक हमें स्थायी संतुष्टि प्राप्त नहीं हो सकती।
अपनी सन्तुष्टता के लिए हम बाहरी चीज़ों को आधार न बनाएं। उन पर निर्भर न रहें। बाहरी वस्तुओं और व्यक्तियों के बदलते स्वरूपों का हमें दास नहीं बनाना है बल्कि अपने को इनका मालिक समझना है। अतः चलचित्र के समान उभरते रंग -बिरंगे चित्रों को , बदलते दृश्यों को और चलती -फिरती पुतलियों को देखते हुए भी अपने मालिकपने की हैसियत को न भूलें। यदि इनके बदलते मूल्य और अपना स्थायी स्वरुप का अंतर दृष्टि से ओझल न हो तो हम हर परिस्थिति में संतुष्ट रह सकते हैं।
अगले अंतिम भाग में संतुष्ट जीवन के लिए योग का महत्व के बारे में होगा।
धन्यवाद
@himanshurajoria