अण्डे का झूठा प्रोपोगेंडा -1 [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, भाग – 2, प्रविष्टि – 9]
“अंडा एक शाकाहारी खाद्य-पदार्थ या कोई मल्टी-विटामिन कैप्सूल नहीं है वरन यह एक रजस्वला मादा मुर्गी की रज़ोनिवृत्ति-क्रिया के अंतर्गत उसके जननांग से स्रावित रजःस्राव है। एक बेबस मादा के मासिक-धर्म की उपज है, अंडा!”
भारत जैसे शाकाहार प्रधान देश में आज अण्डे एवं इससे तैयार व्यंजनों का निसंकोच उपयोग किया जाने लगा है। ज्यादातर बच्चों और युवा-वर्ग का सवेरे का नाश्ता ऑमलेट विद टोस्ट या अंडा फ्राई होता है, दोपहर के भोजन या साँझ को स्नैक्स के रूप में उबले अण्डों का चाट या अंडा भुर्जी का चलन है। अपना जन्मदिन हो, शादी की सालगिरह हो या कोई भी प्रीति-भोज, बिना अण्डे और उसकी क्रीम से बने कैक के तो समारोह शुरू ही नहीं हो पाता! पाश्चात्य संस्कृति का अतिक्रमण आम आदमी की रोज़मर्रा की जीवन-शैली पर आसानी से दृष्टिगोचर होता है। हमारे देश में 1950 में अण्डों की खपत 50 लाख प्रतिदिन थी जो आज 26 करोड़ प्रतिदिन हो गई है। आज ‘अण्डे-उत्पादन’ के क्षेत्र में भारत का विश्व में पांचवाँ स्थान है।
इसकी खपत में इतनी वृद्धि झूठ से परिपूर्ण ज़बरदस्त विज्ञापनबाज़ी के आधार पर ही हुई है। अंडा और दूध ही ऐसे अनब्रांडेड उत्पाद हैं जिनका इतना विज्ञापन होते आपने देखा होगा। ये किसी कंपनी विशेष के विज्ञापन नहीं है, बल्कि इनका बाज़ार बनाने के लिए सभी विक्रेता एकजुट हो गए क्योंकि बाज़ार में मांग बढ़ने पर सभी को बिक्री बढ़ने से लाभ ही होना है। अण्डे को विज्ञापनों के माध्यम से एक बेहतरीन और सम्पूर्ण पोषण वाला स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन बताया गया। इसे ऐसा प्राकृतिक आहार बताया गया जिसमें कोई प्रिजर्वेटिव या मिलावट असंभव है। इसे प्रकृति द्वारा पैक किया हुआ विटामिन ए, बी और डी से भरपूर एक मल्टीविटामिन कैप्सूल के रूप में प्रचारित किया गया। बढ़ते हुए बच्चों के लिए श्रेष्ठतम प्रोटीन का स्रोत और एक प्रकार का ब्रेन-फूड बताया गया जो माँसपेशियों के विकास के लिए भरपूर खनिज तत्व उपलब्ध कराता है। “संडे हो या मंडे, रोज़ खाओ अण्डे!” जैसी पंचलाइनों के माध्यम से इसकी खुराक को रोज़-रोज़ आवश्यक बताया गया। और न जाने कितने ही सरासर झूठ से पूर्ण तथ्यों को आकर्षक रूप देकर वृहत् पैमाने पर प्रसारित किया गया। कई वर्षों में अनेक प्रामाणिक स्रोतों से बारम्बार यही बात देखते देखते आम आदमी के दिलो-दिमाग पर यह बात घर कर गई कि बिना अण्डे के स्वस्थ जीवन असंभव है। जब उसके चारों ओर इसके विक्रेताओं ने दुकानें जमा दी और सब पड़ौसी इसका सेवन कर अपने को अधिक समझदार जताने लगे तो उसने भी झिझकते हुए इसका सेवन शुरू कर दिया और देखते ही देखते यह सबके दैनिक जीवन का हिस्सा बन गया। यहाँ तक कि सरकार पर भी इसको पौष्टिक भोजन का एक अहम दर्ज़ा देने का दबाव बनाया गया। नेशनल एग कोआर्डीनेशन कमेटी (एन.ई.जी.सी.) ने सरकार को विद्यालयों में बच्चों को दिए जाने वाले मिड-डे मिल में रोज़ अण्डे को शामिल करने का दबाव बनाया जिसे कई राज्य सरकारों ने स्वीकृति दे दी। गौर करने की बात यह है कि एन.ई.जी.सी. अंडा विक्रेताओं की ही व्यापारिक सहयोगी है और उनके व्यापारिक हितों के लिए हर मुमकीन कोशिश करती है। इनका बाज़ार बढ़ाने और करोड़ों बच्चों को अबोधावस्था में ही अण्डे खाने की आदत डलवाने का यह एक लंबा व घिनौना षडयंत्र है।
अण्डे खाना भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं रहा है। इसका चलन पिछली शताब्दी में ही शुरू हुआ है। विज्ञापनों और व्यावसायिकता के इस दौर ने इसे जल्दी ही एक बड़े उद्योग के रूप में स्थापित कर दिया। आज की पीढ़ी अण्डे के भक्षण को बिलकुल भी असामान्य नहीं समझती। उसको तो ऐसा प्रतीत होता है गोया अंडा तो कई सदियों से हमारे भोजन का हिस्सा रहा है और इसका सेवन बिलकुल ही प्राकृतिक, शुद्ध एवं सात्विक है। लेकिन ये मात्र सत्य से परे ही नहीं है वरन झूठ की अनेक परतों की तह में लिपटा कर आरोपित किया गया ऐसा तथ्य है कि जिसके बेनकाब होने पर सहसा मानवता की साँसे ही थम जाती है।
अहिंसा के दर्शन को आत्मसात करने वाले भारतीय समाज में सदियों से शाकाहार का बोलबाला था। अचानक हुए अण्डे के सरकारी और गैर-सरकारी प्रचार ने उसे सकते में डाल दिया। अपने आपको असहज महसूस करने वाले शाकाहारी वर्ग ने जैसे ही इसका विरोध किया तो इसके व्यापारियों ने चालाकी से तुरंत ही अण्डे को भी शाकाहार बता दिया और इसे सिद्ध करने के लिए नाना प्रकार के हास्यास्पद तर्क दिए। अण्डों को “शाकाहारी-अण्डे” का नया लेबल लगा कर बाज़ार में उतारा गया।
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इसी श्रंखला में आगे पढ़ें:
क्या अंडा “शाकाहार” हो सकता है?
(प्रविष्टि – 9 अण्डे का झूठा प्रोपोगेंडा)
धन्यवाद!
सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी