Ghazal 40
भाव महफिल में दिखाता हूँ अमीरों की तरह
छुप के ख़ैरात भी लेता हूँ फ़क़ीरों की तरह
दूर के ढोल नज़र आयें कहीं मुझको बस
उठ के आदाब में बजता हूँ मजीरों की तरह
नक्श पानी पे बनाता हूँ इसी हसरत में
कोई कह दे इन्हें पत्थर की लकीरों की तरह
रात दिन बस तिरी यादों के थपेड़े खाकर
क़ैद हूँ आज समन्दर में जज़ीरों की तरह
ढाई आखर का मुझे इल्म नहीं है फिर भी
चाहता हूँ कि पढ़ा जाउँ कबीरों की तरह